गुरु गोबिंद सिंह: साहस और बलिदान की प्रेरणादायक गाथा

आज हम बात करेंगे सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह की, जिन्होंने अपने चार बेटों की कुर्बानी दी। उनके जीवन की कहानी हमें यह सिखाती है कि कैसे एक व्यक्ति अपने धर्म और अपने लोगों के लिए अपनी जान को भी दांव पर लगा सकता है।

गुरु गोबिंद सिंह

गुरु गोबिंद सिंह का प्रारंभिक जीवन

गुरु गोबिंद सिंह केवल नौ साल के थे जब उनके पिता, गुरु तेग बहादुर का सिर अंतिम संस्कार के लिए आनंदपुर साहब लाया गया। इस शहादत ने उनके जीवन के प्रति नजरिए और कार्यों पर गहरा प्रभाव डाला। उनका जीवन एक योद्धा के रूप में, जो लंबे छरहरे और कई प्रकार के हथियारों से सुसज्जित रहता था, के रूप में चित्रित किया गया है।

शिक्षा और कौशल

गुरु गोबिंद सिंह ने अपनी शिक्षा में संस्कृत और फारसी सीखी। उन्होंने घुड़सवारी और बंदूक चलाना भी सीखा और शिकार में अपना समय बिताया। उन्होंने चार भाषाओं में कविताएं लिखना शुरू किया, कभी-कभी एक कविता में चारों भाषाओं का इस्तेमाल करते हुए।

पहली चुनौती

गुरु गोबिंद सिंह को पहली चुनौती उनके पड़ोसी पहाड़ी राज्य बिलासपुर के राजा भीमचंद से मिली। राजा भीमचंद ने गुरु गोबिंद सिंह के बढ़ते प्रभाव को नकारात्मक रूप से देखा और आनंदपुर पर हमला किया, लेकिन वह हार गए।

खालसा की स्थापना

सन सोलह सौ निन्यानवे की शुरुआत में गुरु गोबिंद सिंह ने सभी सिखों को बैसाखी के मौके पर आनंदपुर में एकत्र होने के लिए आमंत्रित किया। वहां उन्होंने पांच लोगों को धर्म के लिए बलिदान देने के लिए आमंत्रित किया। पहले लाहौर के दयाराम ने अपना सिर पेश किया। इसके बाद धर्मदास, मोहकम चंद, और साहिब चंद ने भी आगे आकर बलिदान देने की इच्छा व्यक्त की। गुरु ने इन पांचों को प्यारे का नाम दिया और उनका उपनाम सिंह रखा।

गुरु गोबिंद सिंह

खालसा के नियम

  1. अपने बाल और दाढ़ी को न कटवाना।
  2. एक कंघा रखना।
  3. घुटने तक कच्चा पहनना।
    दाएं हाथ में लोहे का कड़ा पहनना।
    हमेशा एक कृपाण रखना।

मुगलों से संघर्ष

सत्रह सौ एक से सत्रह सौ चार के बीच, सिखों और पहाड़ी राजाओं के बीच संघर्ष जारी रहा। मुगलों ने गुरु गोबिंद सिंह को हराने के लिए अपने सैनिकों को भेजा। गुरु ने अपनी सेना को छह भागों में विभाजित किया और किलों से लड़ाई लड़ने की योजना बनाई।

घेराबंदी और भूख

मुगल सेनाओं ने गुरु गोबिंद सिंह के किलों को चारों ओर से घेर लिया। धीरे-धीरे किले के अंदर खाने की कमी होने लगी। अंततः, गुरु को आनंदपुर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।

बेटों की शहादत

जब गुरु गोबिंद सिंह का जत्था एक छोटी नदी सरसा के किनारे पहुंचा, मुगलों ने उन पर हमला किया। इस लड़ाई में गुरु के दो छोटे बेटे, जोरावर सिंह और फतेह सिंह, मारे गए।

गुरु गोबिंद सिंह का अंतिम समय

गुरु गोबिंद सिंह ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में, औरंगज़ेब को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने धोखे से हमले के लिए उसे दोषी ठहराया। अंततः, उन्होंने अपने अनुयायियों को बताया कि उनके बाद कोई गुरु नहीं होगा और गुरु ग्रंथ साहब को सिखों का शाश्वत गुरु मान लिया जाएगा।

अंतिम विदाई

सात अक्टूबर सत्रह सौ आठ को, गुरु गोबिंद सिंह ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि बलिदान और वीरता का अर्थ क्या होता है।

गुरु गोबिंद सिंह का जीवन एक प्रेरणा है, जो हमें अपने धर्म और अपने लोगों के प्रति निष्ठा की याद दिलाता है।

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